
सलोनी चावला
है मुकद्दर का इंजन, जिंदगी की यह गाड़ी,
लम्हा-लम्हा, डिब्बा-डिब्बा, खिचता जाए रे।
बढ़े तजुर्बा, बढ़े उमरिया, बढ़े वजऩ तकलीफों का,
बस, फासला अंतिम मंजिल से घटता जाए रे।
निशान तेरे, युगों-युगों तक, पढेंगी जग की पीढिय़ां,
कर्म तेरे, वक्त पन्नों पर अपने, लिखता जाए रे।
आते इल्म के बादलों की बूंद -बूंद को पी ले तू, सिर के ऊपर से आसमां खिसकता जाए रे।
सफर है जब तक, साथ है तब तक, तेरा और हर चीज़ का,
क्यों हर शै पर नाम तू अपना लिखता जाए रे।
जो पहिया आज है पटरी पर, कल हो न हो, मालूम नहीं,
कौन सा लम्हा कब करवट बदलता जाए रे।
मिलेगा मानव चोला कैसे अगली जीवन-गाड़ी में,
पापों से तेरी रूह का ओहदा गिरता जाए रे।
धुएँ को जैसे इंजन दे निकाल फेंक अपने से दूर, क्यों नहीं तू भी पापी सोच झटकता जाए रे।
है मुकद्दर का इंजन, जिंदगी की यह गाड़ी,
लम्हा-लम्हा, डिब्बा-डिब्बा, खिचता जाए रे।
रचयिता – सलोनी चावला