
जब अकल बाँट रहे थे भगवान,
मैं भी चल पड़ी सीना तान।
सोचा पहला नंबर आ जाए, तो
शायद अकल ज़्यादा मिल जाए।
लेकिन पथ पर था ट्रैफिक जाम,
पहुँची देर से प्रभु के धाम।
बहुत ही लंबी थी लगी कतार,
जुड़ी, दे किस्मत को, गाली दो चार।
थक हार जब आया नंबर,
खाली हो चुका था समुंदर।
बोला रब, “अकल हो गई है खत्म,
अब तो मिलेगी अगले ही जन्म”।
छिड़ गई फिर तो मेरी प्रभु से बहस –
“जाऊंगी ना अकल लिए बिना मैं वापिस”।
“कुछ बची-खुची ही दे दो”, मैं बोली,
रब बोले, “मेरे पास है एक्सपायरी डेट वाली”
“वह तुम देना किसी और को भरपूर,
मुझे आपका नहीं है यह सौदा मंज़ूर”।
प्रभु बोले, “फिर मिलावट वाली ले लो,
थोड़े दिन उसी से काम चला लो”।
मैं बोली, “इंसान तो रचता है दिलों से खेल”,
और रब तुम रचाते हो दिमाग से खेल!
न एक्सपायरी डेट वाली, न मिलावट वाली,
मैं लूंगी तो पूरी हंड्रेड परसेंट क्वालिटी वाली”।
प्रभु अपने मुखड़े पर ले आए मुस्कान,
बोले, “मैं तो ले रहा था तुम्हारा इम्तहान!
मेरे पास मिलती है सिर्फ़ शुद्ध अकल,
क्या मज़ाल जो सृष्टि में कोई दे दे दखल!
मेरे पास अकल कभी नहीं होती ख़त्म
न ही रुकना पड़ेगा किसी को अगले जन्म।
अकल सभी को मिलती है बराबर,
संस्कार कौन कितने डाले, वह है उसपर।
इस अकल का कोई करता है सदुपयोग,
और कोई विनाश के लिए उसका दुरुपयोग।
कोई रिश्ते जोड़ता है मिलाकर संस्कार,
तो कोई अहंकार से रिश्तों में डाले दरार।
तुमने मांगी है अकल अच्छी क्वालिटी वाली,
तो बनाओ उसको संस्कारों और अच्छी नीयत वाली।
जाओ, जहां में फैला दो पैगाम,
कैसा चाहिए जगत, यह जगत वालों का है काम!
मैं तो करता हूं, करता रहूंगा मार्गदर्शन,
कोई लेने वाला तो बने, मुझे इसी की है टेंशन!
“कोई लेने वाला तो बने, मुझे इसी की है टेंशन!
“मुझे इसी की है टेंशन!”
रचयिता – डॉक्टर सलोनी चावला